संपादकीय : सरकार ने भारत में विदेशी सहायता के आने का रास्ता छोटा कर दिया है। केंद्र ने सुप्रीम कोर्ट से कहा है कि सरकार ने कानून (विदेशी अंशदान नियमन अधिनियम, 2020) में संशोधन करने में कोई गलती नहीं की है ताकि विदेशी धन देश की राजनीतिक और सामाजिक बहस को प्रभावित न कर सके। गैर सरकारी संगठन संकट में हैं। उन्होंने शिकायत की कि नए कानून के परिणामस्वरूप, उनके संगठित होने और आजीविका के अधिकार को कम कर दिया गया है। केंद्र का दावाः मुफ्त, अनियंत्रित विदेशी अनुदान प्राप्त करना मौलिक अधिकार नहीं है। यह कानून देश की संप्रभुता और एकता के हित में आवश्यक है और इसका मुख्य उद्देश्य सार्वजनिक जीवन पर विदेशी अनुदान के प्रभाव को रोकना है। सरकार ने यह भी कहा है कि “राष्ट्रीय हित” या “सार्वजनिक हित” के विपरीत किसी भी काम के लिए विदेशी अनुदान या आतिथ्य निषिद्ध है। सरकार के इस बयान में कई निष्पक्ष और अन्यायपूर्ण मांगें शामिल हैं। यह निर्विवाद है कि सभी गैर-सरकारी संगठनों के इरादे पवित्र नहीं हैं। जैसा कि पूर्व में देखा गया है, कई स्वयंसेवी संगठनों ने लोक सेवा के नाम पर अनुदान का गबन किया है। किसी ने खतरनाक धार्मिक, सांस्कृतिक या राजनीतिक सिद्धांत फैलाए हैं। आतंकवादी गतिविधियों के लिए गैर-सरकारी संगठनों के लिए विदेशी फंडिंग के भी उदाहरण हैं। तोड़फोड़ और भ्रष्टाचार की निगरानी एवं नियंत्रण करना सरकार का कर्तव्य है। लेकिन उसके पास उचित व्यवस्था नहीं थी? अवैध धन पर अंकुश लगाने के लिए अनुदानों को क्यों रोका जाना चाहिए?
भारत की संप्रभुता को संरक्षित किया जाना चाहिए, लेकिन सरकार को इस तथ्य का भी सम्मान करना चाहिए कि भारतीय नागरिक सर्वदेशीय हैं। विशेष रूप से, अंतर्राष्ट्रीय संगठन विभिन्न देशों की सरकारों को मानवाधिकारों, महिलाओं के अधिकारों, पारदर्शी प्रशासन, महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा और हाशिए पर रहने वाले, और गरीबी उन्मूलन के आदर्शों और लक्ष्यों के प्रति चौकस और जवाबदेह बनाने के लिए काम करते हैं। भारत को उसकी काफी जरूरत है। आतंकवाद को रोकना सरकार का एक महत्वपूर्ण कर्तव्य है: सरकार के पास ऐसा करने के कई तरीके हैं। आतंकवाद विरोधी कानून बेहद मजबूत है। देशद्रोह विरोधी, सांप्रदायिक संघर्ष विरोधी कानून भी कमजोर नहीं हैं। सरकार ने विदेशी मुद्रा के उपयोग पर नियमों का उल्लंघन करने वालों पर हमेशा के लिए नकेल कसी है। इन सभी कानूनों और विनियमों के उचित कार्यान्वयन से अनुदानों के अवैध उपयोग को रोका जा सकता है। गरीब, हाशिए के लोगों के विकास में लगे हजारों गैर-सरकारी संगठनों के अनुदान को रोकना सरकार की नीति नहीं हो सकती।
क्या देश सरकार के ‘कल्याण’ के लिए लोकतंत्र का रास्ता छोड़ चुका है?
भारतीयों को एक उद्देश्य के लिए विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों के हिस्से के रूप में एक साथ काम करने का अधिकार है। किसी भी कार्य से राष्ट्रहित या जनहित का हनन न हो जाए, इस भय से सभी कार्य बंद करने की प्रवृत्ति तानाशाही की निशानी है। क्या केवल विदेशी मुद्रा की शक्ति से भारत की विशाल, विविध राजनीतिक बहस को प्रभावित करना संभव है? और अगर दान का रास्ता बंद कर दिया जाए तो क्या अलग-अलग विचारों का आना बंद हो जाएगा? भारत सरकार को कब एहसास होगा कि भारत की एकता और संप्रभुता की रक्षा करने का एकमात्र तरीका देश के नागरिक समाज का वित्तीय या बौद्धिक अलगाव नहीं है?
संपादकीय : Chandan Das ( ये लेखक अपने विचार के हैं )
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